रविवार, 15 दिसंबर 2013

विरोधी रसों का परिपाक

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विरोधी रसों का परिपाक 

 दिल्ली में सरकार बनने बनाने का नाटक ज़ारी है। ये विचित्र बात है कि नाटक के फलागम से पहले ही रस परिपाक हो रहा है। इस नाटक में करुण रस ,वीर रस और शांत  रस तीनों विचित्र अनुपात में परस्पर जुड़े हुए हैं। हालाकि तीनों रस शास्त्रीय दृष्टि से परस्पर विरोधी हैं। कांग्रेस शोक में डूबी है। उसके चेहरे पर करुण  रस व्याप्त है। उसकी हालत यह है कि गहन शोक में रो नहीं सकती। दिखावे के लिए ही सही उसकी हालत पे विलाप करने वाले भी नहीं मिल रहे। इधर यथा लाभ संतोष की मुद्रा में 'भाजपा  के चेहरे पर शांत रस व्याप्त हो रहा है। ज्यादा न सही पर ३२ बुरे तो नहीं कमसे कम बत्तीसी तो नहीं टूटी। इधर २८ का आँकड़ा हासिल कर 'आप 'पार्टी दर्प में डूबी है। वह वीर रस में  संचार कर रही है। 

           पर बुरा हो नासपीटी 'कांग्रेस' का जिसने अपने कुल आठ ' सदस्यों को बिना शर्त समर्थन दे दिया है 'आप ' पार्टी को। अब 'आप' पार्टी न निगल सकती है न उगल सकती है। लिहाज़ा वो भी अपना दाव चलना चाहती है। पर इसी कोशिश में वह हास्य रस का आलम्बन बन गई है। अब उसका दर्प काफूर हो चुका है। उसने जो १८ शर्तें कांग्रेस और भाजपा के सामने रखी हैं उनका सरकार बनाने से कोई सम्बन्ध नहीं है। भाजपा के  सामने तो उसे शर्तें रखनी ही नहीं चाहिए क्योंकि वह सरकार बनने बनाने के खेल में शामिल ही नहीं है। लिहाज़ा अब 'आप ' पार्टी और 'कांग्रेस 'आमने सामने हैं।  

     एक घुर्र घुर्र कर रही है दूसरी मिमिया रही है। वीर रस और करुण  रस का अजीब घालमेल है। दर्शक दोनों पे हंस रहे हैं। पहली बात तो यह है कि सभी १८ शर्तें या तो प्रशासनिक मामलों से जुड़ी हैं या फिर सरकार के विशेष   अधिकार से। इसमें सदन कहीं नहीं आता। फिर भी प्रश्नोत्तर ज़ारी है जो शनै: शनै : आरोप  प्रत्यारोप  में बदल रहे हैं।  

'आप ' पार्टी की शर्तें तो  ऐसी  हैं जैसे   कोई कहे कि मेरा नाक बह रहा है क्या उसे पौंछने के लिए कांग्रेस रुमाल देगी या फिर केज़रीवाल कह रहे हों   कि मैं साठ फुट  पानी में डूबने जा रहा हूँ क्या मुझे कांग्रेस बचाएगी।बहरहाल मनोरंजन भी बढ़ता जा रहा है। 'आप ' पार्टी में एक कुमार विश्वास हैं। ये पता नहीं लगता कि वे विश्वास के कुमार हैं या किसी कुमार के विश्वास हैं। हिंदी के अच्छे प्राध्यापक रहे हैं। अपने विद्यार्थियों  को भाषण प्रतियोगिता और वाद विवाद के गुर भी सिखाये होंगें। उनका ये अभ्यास अब उन पर हावी हो गया है। बोलते हैं तो लगता है कि वाद विवाद कर रहें हैं। उन्हें तो वादी की बात का प्रतिवाद ही करना है। इस खेल में उनका अपना ही जलवा है। वो अपने जलवे के एकमात्र दर्शक और श्रोता  हैं.दिल्ली के दर्शक उन पर भी हंस रहे हैं। 

    'आप ' के एक विचारक मात्र हैं योगेन्द्र यादव। बहुत से तटस्थ लोगों का उन पर विश्वास हैं। हम भी उनके प्रशंषकों  में  रहे हैं  पर इस समय उन्होंने अपनी विचारशीलता को चेहरे की दाढ़ी में छिपा लिया है। अब साफ़ और सच की बजाय वे राजनीति करने लगे हैं। वे हैरान और परेशान  हैं ,लोग उनकी मुद्रा पर भी हर्षित हो रहे हैं। 

इस नाटक में 'आप ' पार्टी के ये पात्र अब एक और मोर्चे पे आ डटे हैं। उन्हें लोकपाल पर अन्ना की सहमति पर एतराज है। दिल्ली की और विशेषकर पूरे देश की ये जनता उनसे पूछना चाहती हैं कि क्या वह लोकपाल बिल श्रीमंत अन्ना हज़ारे के जीवन से बड़ा समझते हैं। आखिर वे चाहते क्या हैं ?बहरहाल हास्य ,करुण ,वीर और शांत रस का ये विचित्र परिपाक 

उत्कर्ष  पर है।  










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