शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

गुरु किया है देह का, सतगुरु चीन्हा नाहिं । भवसागर के जाल में, फिर फिर गोता खाहि

गुरु शरणागत छाड़ि कै , करे भरोसा और ,

सुख सम्पति को कह छलि ,नहीं नरक में ठौड़। 

कबीर ते नर अंध हैं गुरु को कहते और ,

हरि  रूठे गुरु ठौड़ है ,गुरु रूठे नहीं ठौड़। 

गुरु बिन ज्ञान न उपजै ,गुरु बिन मिलै न मोक्ष ,

गुरु बिन लखै न सत्य को ,गुरु बिन मिटै  न दोष। 


कुमति कीच चेला  भरा ,गुरु ज्ञान जल होय,

जनम जनम का मोरचा(मोरछा ), पल में डारे धोय.

गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, का के लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपणे, गोबिंद दियो मिलाय॥

गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि ।
बिना विचारे गुरु करे, परे चौरासी खानि॥

सतगुरू की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार।
लोचन अनंत उघाडिया, अनंत दिखावणहार॥


गुरु किया है देह का, सतगुरु चीन्हा नाहिं ।
भवसागर के जाल में, फिर फिर गोता खाहि॥


शब्द गुरु का शब्द है, काया का गुरु काय।
भक्ति करै नित शब्द की, सत्गुरु यौं समुझाय॥


बलिहारी गुर आपणैं, द्यौंहाडी कै बार।
जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार।।

कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और । 
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥


जो गुरु ते भ्रम न मिटे, भ्रान्ति न जिसका जाय।
सो गुरु झूठा जानिये, त्यागत देर न लाय॥

यह तन विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान।

सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान॥

गुरु लोभ शिष लालची, दोनों खेले दाँव।
दोनों बूड़े बापुरे, चढ़ि पाथर की नाँव॥

मूल ध्यान गुरू रूप है, मूल पूजा गुरू पाव |

मूल नाम गुरू वचन है , मूल सत्य सतभाव ||


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गुरू मूर्ती गती चंद्रमा, सेवक नैन चकोर |

आठ पहर निरखता रहे, गुरू मूर्ती की ओर ||

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