रविवार, 25 अक्तूबर 2015

शायरी की जींस लिए फिरते हो , मिर्ज़ा ग़ालिब ही नहीं मीर लिए फिरते हो।

मिट्टी  में मिला दे जुदा हो नहीं सकता ,

इससे ज्यादा तो मैं तेरा हो नहीं सकता। 

किसी ने निकाल के रख दीं हैं चौखट पे आँखें ,

इससे ज्यादा तो रोशन दीया हो नहीं सकता। 

तेरी बंदगी से पहले मुझे कौन जानता था ,

तेरी इश्क ने बना दी मेरी ज़िंदगी फ़साना। 

तुझको खोकर मेरे हाथों की लकीरें भी मिटी जाती हैं ,

अब तो मेरे पास बचा कुछ भी नहीं। 

खुदा मुझे ऐसी खुदाई न दे ,

मुझे अपने सिवाय ,कुछ दिखाई न दे। 

खुदा तो नाम है उस एहसास का , 

 जो सामने रहे और दिखाई न दे।

जब उसका हाथ ,मेरे हाथ के करीब आता है ,

तब ताजमहल बन जाता है। 

शायरी की जींस लिए फिरते हो ,

मिर्ज़ा ग़ालिब ही नहीं मीर  लिए फिरते हो। 

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