मंगलवार, 3 नवंबर 2015

कठिन दिनों में जीना तभी संभव है जब धर्म साथ हो - कठिन दिनों में साथ निभाना ,सबके बसकी बात नहीं है , सबके संग में रह यह जाना ,सबके बसकी बात नहीं है। आंधी तूफानों के मेले हों , घर घर दीप जलाना ,सबके बसकी बात नहीं है।

औरों की तरक्की देखकर  ,प्रगति ,उन्नति देखकर यदि आपके मन में ईर्ष्या पैदा हो डाह पैदा हो , विशेषकर अपनों की प्रगति देखकर हमारा मुख म्लान हो जाए ,तो समझ लेना हम बहुत छोटे स्तर के आदमी  हैं। अवनति के मार्ग पर हैं।बहुत कठिन है आपकी हाईट देखना  और यदि औरों की प्रगति देखकर  आप हर्षित हों तो चुपके से अपने आपको कहना हम सही मार्ग पर हैं ,जानना हम साधक हैं। पार लग जाएगी नैया।

बारह वर्ष के वनवास के बाद भी एक वर्ष के अज्ञात वास के बाद भी इतनी कठिनाइयों में रहे पांडव ,दूर्वा का रस पीके रहे ,साग -पात ,कंदमूल खा के रहना पड़ा। सूखे मेवे और फल बीनके खाते रहे।   पांडव कितनी भी कठिनाई में रहे , धर्म नहीं त्यागा ,धर्म पर कायम रहे।द्रौपदी आलता लगातीं हैं मेहँदी लगाती हैं दासी बनके रहीं धर्म नहीं त्यागा ,विराट राजा की पत्नी की। धर्मराज युधिष्ठिर को सेवक बनके रहना पड़ा। भीम को पाचक और अर्जुन को वृहनलला बनके रहना पड़ा। नकुल सहदेव को सईस बनके अस्तबल के घोड़ों की सेवा में रहना पड़ा। दिन गिनते रहे ३६५ दिन कब हों और हमें अपना राज्य वापस मिले। हमारा अज्ञातवास संपन्न हो।

कठिन दिनों में जीना  तभी संभव है जब धर्म साथ हो -

कठिन दिनों  में साथ निभाना ,सबके बसकी बात नहीं है ,

सबके संग में रह यह जाना ,सबके बसकी बात नहीं है।

आंधी तूफानों के मेले हों , घर घर दीप जलाना ,सबके बसकी बात नहीं है।

किसी का हाथ तंग हो तो अपना हाथ आगे कर देना। ये बड़ी साधना है। पांडव निकल कर आये थे इन कठिनाइयों से। कृष्ण बीच बीच में मिलने आते रहे। विदुर के सन्देश मिलते रहते। कभी सत्संग कभी पुण्य विचार का सहारा लगाते रहे कृष्ण ।

राजधानी के नाम पर खंडहर दे दिया उन्हें दुर्योधन ने ,जगह मिली तो खाण्डवप्रस्थ  ,जहां सिर्फ दलदल था कंटीली झाड़ियाँ थीं। और वहां उन्होंने इंद्रप्रस्थ बनाया। हस्तिनापुर में उन्हें स्थान नहीं मिला। लेकिन वहां भी उन्होंने एक ऐसी आकृति पैदा कर दीं कि आँगन भी जलाशय सा दिखने लगा। सपाट मैदान झील जलाशय सा दिखने लगा। जलाशय में फल फूल पत्तियां , रंग इस तरह से बिछा दिए कि वह आँगन सा दिखने लगा।

दुर्योधन भर्मित होकर गिर पड़ा। सारी सखियाँ हंस पड़ी। रानियां परिचारिकाएं हंस पड़ीं। हो सकता है ऐसा कह दिया हो अंधे का अंधा है।

शब्द मारक होता है वेधक होता है बोधक होता है। शब्द ब्रह्म का बीज है। आकाश का गुण है। शब्द में अमृत है। गुरु क्या देता है मन्त्र ही तो होता है। शब्द तारक होता है। औषधि होता है। मारक होता है प्राणघातक होता है। शब्द अधरामृत है ,ज्ञानामृत है। एक शब्द का प्राणघातक प्रभाव है और एक शब्द का प्रकाशक। शब्द चरणामृत है ,पंचामृत है ,वचनामृत है। भारत के आदमी को शब्द से अमृत बनाना  आता है।

शब्द सँभारे बोलिए ,शब्द के हाथ न पाँव ,

एक शब्द औषध करे ,एक शब्द करे घाव।

दरिद्रता छीन लेते हैं शब्द। मारक ही नहीं है बोधक भी हैं।

धृतराष्ट्र गांधारी से कहते हैं -मैं कितने छोटे स्तर का आदमी हूँ ,मुझे मालूम था लाक्षागृह में पांडव पुत्र जलकर भस्म हो जाएंगे ,वो लड्डू जिनमें विष था उन्हें खाकर पांडव मर जाएंगे ,मेरी छाती वज्र की है मैं चाहता था किसी बहाने भीम को गले लगाकर चूर चूर करके मार दूँ और यह सब इसलिए कि मुझे पाण्डु पुत्रों को आधा राज्य न देना पड़े ,इतना बड़ा न हो जाए धन हमारे जीवन में कि सम्बन्ध खो जाएं। मेरे संगी साथी मुझसे दूर चले जाएं। बस धन रहे मेरे पास।और आत्मग्लानि से भरे धृतराष्ट्र रात के अँधेरे में महल से निकल पड़े ,गांधारी का हाथ पकड़ दोनों आगे बढ़े। गांधारी भी कैसे देखें उन्होंने तो आँखों पर पट्टी कसी है पति के बराबर  होने के लिए।

खम्भे से दोनों टकराते हैं गिर पड़ते हैं दोनों आवाज़ लगाते हैं कोई सेवक आगे नहीं आता। कौरव सारे मारे जा चुके हैं। अचानक एक आकृति आगे आती है। बहुत जानी पहचानी सी ,हाथ भी जाना पहचाना है स्पर्श भी। कुंती थी यह। दोनों के बीच में आ गई। एक हाथ धृतराष्ट्र के कंधे पे दूसरा गांधारी के कंधे पर रख आगे बढ़ते हुए बोली। जेठानी मुझे अकेली कैसे छोड़ जाओगी। वह झगड़ा तो भाइयों का था। मैं किस्से आदेश लूंगी। मैं तो सदैव आपसे ही आदेश लेती आईं  हूँ। और कुंती ले आई उन्हें व्यासदेव के आश्रम पर। ऐसी है भारत की संस्कृति। भारत की नारी।

सन्दर्भ :देविभागवदपुराण से कुछ अंश 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें