बुधवार, 31 मई 2017

सब जीवों में उस परमात्मा की ज्योति का ही आलोक है ,सब उसी से सिंचित हैं ; वह पावन परम आलोक गुरु की कृपा और शिक्षा (सीख ) से ही प्रकट होता है। उस परम ज्योति को जो भी स्वीकार्य होता है ,वही पूजा बन जाती है

रागु धनासरी महला १ 

गगनमै थालु  रवि चंदु दीपक बने तारिका मंडल जनक मोती। 

धूपु मलआनलो पवणु चवरो करे सगल बनराइ फूलंत जोती || (१ ) || 

कैसी आरती होइ | भवखंडना तेरी आरती।अनहता सबद वाजंत भेरी || १ || रहाउ ||   

सहस तव नैन नन नैन हहि तोहि कउ सहस मूरति नना एक तोही।  

सहस पद विमल  नन एक पद गंध बिनु  सहस तव गंध इव चलत मोही || २ || 

सभ महि जोति जोति है सोइ | तिस दै चान िण सभ महि चानणु होइ। 

गुरसाखी जोति परगटु होइ | जो तिसु भावै  सु आरती होइ | | ३ || 

हरि चरण कवल मकरंद लोभित मनो अनदिनो मोहि आही पिआसा | 

क्रिपा जलु  देहि नानक सारिंग कउ होइ जा  ते तेरै नाइ वासा || ४|| ३ || 

ऐसा समझा जाता है यह आरती  गुरुनानक देव जी ने जगन्नाथ के मंदिर में पंडों के बाहरी कर्मकांडों (रिचुअल्स )पे सारा जोर देखते हुए उन्हें चेताने के लिए मंदिर के बाहर आकर गाई। 

व्याख्या (भाव सार ) :

हे प्रभु ,तुम्हारे पूजन के लिए गगन के थाल में चंद्र और सूर्य के दो दीप जले हैं और समूचा तारामंडल मानो थाल में मोती जड़े हैं। स्वयं मलयगिरि (चंदन -वन- परबत )के चंदन की गंध धूप की सुगन्धि है ,पवन चँवर झुला रहा है ,तथा सृष्टि की समूची वनस्पति ही ,हे परमात्मा तुम्हारी आराधना के पुष्प हैं। तुम्हारी यह प्राकृतिक आरती नित्य और अति मनोहर है | हे भवखण्डन (आवागमन का नाश करने वाले )प्रभु ,यह तेरी मनमोहक आरती है | तुम्हारे सब जीवों के अंदर बज रहा अनहद (अनाहत )शब्द ही मंदिर की भेरी है। || १ || रहाउ || 

(जिस प्रभु की स्तुति में आरती गाई जा रही है ,वह सब जीवों के भीतर निवास करता है ,इसलिए हे परमेश्वर !)तुम्हारी असंख्य आँखें हैं (अर्थात सब जीव तुम्हारा ही रूप हैं ,इसलिए उनकी आँखें तुम्हारी ही तो हैं )किन्तु तुम्हारी कोई भी आँख नहीं। इसी प्रकार तुम्हारी सहस्रों शक्लें हैं ,किन्तु फिर भी तुम्हारी कोई भी शक्ल नहीं (अर्थात तुम निर्गुण निराकार हो )| तुम्हारे असंख्य विमल चरण हैं ,निर्गुण रूप में कोई चरण नहीं। सगुण रूप में प्रकट होने पर (इन सब जीवों के रूप में )तुम्हारी असंख्य नासिकाएं गंध लेती हैं ,अन्यथा निराकार रूप में तुम्हारी कोई नासिका नहीं। यह तुम्हारा विचित्र कौतुक है ,जिसे देख -देखकर मेरा मन मोहित हो रहा है || २ || 

सब जीवों में उस परमात्मा की ज्योति का ही आलोक है ,सब उसी से सिंचित हैं ; वह पावन परम आलोक गुरु की कृपा और शिक्षा (सीख ) से ही प्रकट होता है। उस परम ज्योति को जो भी स्वीकार्य होता है ,वही पूजा बन जाती है || ३ || 

हे परमात्मा ,तुम्हारे  चरण  कमलों के मकरंद का प्यार मुझे रात- दिन रहता है | गुरुनानक देव कहते हैं  ,हे कृपानिधि ,मुझ पपीहे (चातक )को अपनी कृपा की स्वाति -बूँद प्रदान कर ,जिससे में परमात्मा  के नाम  ही में लीन हो  जाऊँ || ४ || ३ ||   

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