बुधवार, 27 सितंबर 2017

सगुण मीठो खांड सो ,निर्गुण कड़वो नीम , जाको गुरु जो परस दे ,ताहि प्रेम सो जीम।


मानस में तुलसी बाबा कहते हैं : जाकी रही भावना जैसी , प्रभु मूरति देखि तीन तैसी

मूलमंत्र (गुरु ग्रन्थ साहब का पसारा -भाव -सार अंग्रेजी और हिंदी दोनों मे ):

Mool Mantra :

"Ekonkar ,Satnam ,Karta-purakh ,Nirbhya ,Nirvair ,

Akal -Murat ,Ajuni, Saibhang ,Gur Parsadi "


Creator and His Creation (made up  of the mode of good - ness,mode of action and mode of ignorance,Sat ,Rajo ,Tamo  ) are one -"Ek Ongkaar"

He is outside time and is present now ,was present then ,   and  will be present  in the future .His existence is the only truth . -"Satnam "

He is the creativity which is happening and not the doer .Whatever is happening is happening because of the truth existence (Satnam )-"Karta Purakh "

He is without fear since there is only God and no second.He is revenge less , He is without an enemy .-"Nirbhya Nirvair "

His reflection (Image )does not change with time .He is beyond all species.He is neither male nor female.His image is beyond time and is without a form .-"Akaal Moorat "

He is not one of the species and does not enter the womb of a mother's uterus .He is without a body and hence anatomy and is all pervading present every where now then and in the  future at the same time ."Nanak" is a light of enlighenment  which is shown on to Nanaku -The Body of Gurunanak dev ,who had parents .Nanak has none .-"Ajooni" .

He is self illuminating ,self luminous ,self irradiated ."Sabhang "

The same light "Jot"travels through Nanaku to Guru Govind Singh Ji.

Vaah -Guru !

My Guru is wonderful .

He is the macro -cosmic supra -consciousness. He is everlasting bliss .-"Gur Parsadi "

भाव -सार :

सृष्टि -करता और सृष्टि ,रचता और रचना एक ही है।करता और कृति , रचना उस रचता की ही साकार अभिव्यक्ति है। उसका अस्तित्व काल -बद्ध एक अवधि मात्र ,एक टेन्योर भर नहीं है उसका अस्तित्व ही एक मात्र सत्य है ,सनातन है -आज भी वही सत्य है कल भी वही था और आइंदा भी वही रहेगा। इसीलिए कहा गया वही सत्य है सत्य उसी का नाम है (राम नाम सत्य है -भी इसीलिए कहा  जाता है ).. यह सृष्टि एक प्रतीति है जस्ट  एन  एपीरिएंस। उसका नाम ही एक मात्र सत्य है। 

जो कुछ भी घट रहा है बढ़ रहा है यहां सारा सृजन ,सारी गति ,इलेक्ट्रॉन की धुक -धुक ,परिक्रमा  और नर्तन ,कर्म -शीलता उसी से है। करता नहीं है वह दृष्टा है इस कायनात का। 

नाम काम बिहीन पेखत धाम, हूँ नहि जाहि ,

सरब मान सरबतर मान ,सदैव मानत ताहि। 

एक मूरति अनेक दरशन ,कीन रूप अनेक ,

खेल खेल अखेल खेलन ,अंत को फिर एक। 

उसके अलावा और किसी का अस्तित्व है ही नहीं जो दीखता है उसकी ही माया है। इसी माया की वजह से वह खुद अगोचर बना रहता। 

इसीलिए वह निर्भय-निर्वैर है -

न काहू से दोस्ती ,न काहू से वैर,
कबीरा खड़ा सराय में ,सबकी चाहे खैर। 

उसका कोई रूप नहीं वह अरूप है। निराकार -निरंजन है वह इसीलिए सर्व -व्यापक सब थां पर हैं। उसकी छवि आभा कांति रिफ्लेक्शन या इमेज समय के साथ छीजती बदलती नहीं है। उसका कोई रूप नहीं है और सब रूप उसी के हैं। कोई एक धाम नहीं है और सब धाम उसी के हैं। वह विरोधी गुणों का प्रतिष्ठान है। 

वह किसी माँ के गर्भ में न आता है न जाता है। 

"पुनरपि जन्मम ,पुनरपि मरणम ,

पुनरपि जननी जठरे शरणम् ". 

यह उक्ति  हम प्राणियों के लिए है। वह न कहीं आता है न कहीं  जाता है। वह  दूर से दूर भी है और नेड़े से भी नेड़े निकटतम भी है ,हृद गुफा में वही तो है ,मेरा रीअल सेल्फ। 

वह स्वयं प्रकट  हुआ है ,स्वयं आलोकित है। सर्वत्र उसी का यह आलोक है। स्वयं -भू है वह। 

चेतन (गुर )वही है -परम चेतना भी। वह ऐसा आनंद है (परसादि )जो समय के साथ कम नहीं होता है। व्यष्टि  के स्तर पर वही "आत्मा" है ,समष्टि  के तल पर "परमात्मा"।"मैं" भी वही हूँ "तू" भी वही है। फर्क है तो बस उसके और मेरे (हमारे )परिधानों ,कपड़ों में है। मेरे कपड़े मेरा यह तन है जिसे मैं अपना निजस्वरूप माने बैठा हूँ ,यह अज्ञान मेरे अहंकार से ही आया है। उसके वस्त्र माया है। त्रिगुणात्मक (सतो -रजो -तमो गुणी सृष्टि )है।

माया में प्रतिबिंबित ब्रह्म को  ही ईश्वर कहा गया है। ब्रह्म के भी दो स्वरूप हैं 

(१ )अपर ब्रह्म और :अपर ब्रह्म ही माया में प्रतिबिंबित ब्रह्म होता है 

(२ )परब्रह्म या पारब्रह्म  परमचेतन तत्व है "गुरप्रसादि "का "गुर "
है। परमव्यापक चेतना है। 

विज्ञानी कहते हैं सृष्टि भौतिक तत्वों से बनी है -बिगबेंग प्रसूत ऊर्जा से इसकी निर्मिति हुई है। लेकिन आध्यात्मिक सनातन दृष्टि इसे परम -चेतना "गुर "ही मानती है। 

जयश्रीकृष्ण। 

महाकवि पीपा कहते हैं :

 सगुण  मीठो खांड सो ,निर्गुण कड़वो नीम ,

जाको  गुरु जो परस दे ,ताहि प्रेम सो जीम। 

मानस में तुलसी बाबा कहते हैं :

जाकी रही भावना जैसी ,

प्रभु मूरति देखि तीन तैसी। 

शिवजी पार्वती जी से मानस के ही एक प्रसंग में अपना अनुभव कहते हैं :

उमा कहूँ मैं अनुभव अपना ,

सत हरिभजन जगत सब सपना। 

यानी संसार एक प्रतीति मात्र है सत्य केवल "सतनाम 'ही है। 

सन्दर्भ :https://www.youtube.com/watch?v=fCehIP7AQBI

वाहे गुरु जी का खालसा वह गुरूजी की फतह।  

Reference :

(1)https://www.youtube.com/watch?v=W9Q69tkRRVI

सोमवार, 25 सितंबर 2017

बीएचयू में षडयंत्रकारी तत्वों का जमघट


बीएचयू में षडयंत्रकारी तत्वों का जमघट


प्रधानमन्त्री अभी हवाईजहाज में बैठे ही थे ,मार्क्सवाद के बौद्धिक गुलामों में जिनके सरदार येचारी सीताराम बने हुए हैं ,सपाई के छटे हुए षड्यंत्रकारी तत्व ,पाकिस्तान विचार के स्थानीय जेहादी तत्व जिनमें अपने को सबसे पहले मुसलमान मानने शान से बतलाने वाले लोग ,ममताई लफंडर आईएसआई के स्लीपर सेल के लोग,हाय ये तो कुछ भी नहीं हुआ कह के  हाथ मलके चुप नहीं बैठे उन्होंने अपनी लीला दिखला दी।

 मुद्दा था एक केम्पस छात्रा  के  साथ कथित बदसुलूकी दूसरी का अपने को खुद ही घायल कर लेना और तीसरी का सर मुंडा लेना। प्रधानमन्त्री कि यद्यपि यह कांस्टीटूएंसी है लेकिन प्रधानमन्त्री का काम गली -गली घूमके इन षड्यंत्रों को सूघ लेना नहीं होता है वह आये और अपना सकारात्मक काम अंजाम देकर चले गए।

योगी आदित्य नाथ खुद क्योंकि षड्यंत्रकारी नहीं रहे हैं मुलायमतत्वों की तरह ,वह अंदर खाने पल रही इस साजिश की टोह नहीं ले सके। यूनिवर्सिटी के वाइसचांसलर ने घटना पर खेद व्यक्त करते हुए कहा है जो हुआ वह खेद जनक है लेकिन मुझे घटना को ठीक से समझने तो दो।वह भी हतप्रभ हैं।

अजीब बात है हालांकि शरदयादव के लोग  वहां इम्प्लांट नहीं किये गए थे लेकिन ये ज़नाब घटना की निंदा करने वालों में सबसे आगे रहे।

अब ये भारतधर्मी समाज का काम है वह आमजान को बतलाये बीएचयू को जेएनयू में बदलने की साजिश करने वाले कौन -कौन से कन्हैया तत्व हैं जो मौके का फायदा उठा रहे हैं। बीएचयू एक बड़ा कैंपस है यहां हैदराबादी ओवेसी -पाकिस्तान सोच के लोग भी पढ़ने की आड़ में घुस आये हैं ,सीधे -सीधे पाकिस्तान सोच के लोग भी ,ममता की नज़र पूजा - मूर्ती विसर्जन से पहले ऐसे दंगे करवाने की बनी हुई है ताकि अपनी सोच को वह ठीक ठहरा सकें। इन्होने हाईकोर्ट के आदेश को नहीं माना सुप्रीम कोर्ट इसलिए नहीं गईं कि और फ़ज़ीहत होगी लिहाज़ा अपनी सोच को जायज सिद्ध करने करवाने के लिए वह हिन्दुस्तान में जगह -जगह दंगे प्रायोजित करवाने की ताक  में हैं उनके लोग भी बीएचयू पहुंचे पहुंचाए गए हैं।  यकीन मानिये बहुत जल्दी इन की बखिया उधड़ेगी लेकिन भारतधर्मी समाज को इस वेला देश- विरोधी  पाकिस्तान और आईएसआई समर्थक सोच के लोगों पर बराबर निगाह जमाये रखनी है। जैश्रीकृष्णा।  

शुक्रवार, 22 सितंबर 2017

जेहादी तत्वों के पोषक देश भंजकों अपनी मूल धारा में लौटो -भले मार्क्सवाद की बौद्धिक गुलामी करो लेकिन जेहादी रोहंग्या के साथ मत फिरो गली- कूचों में ,जेहादी तत्वों को यहां से दफह होना ही होगा ,तुम काहे बुरे बनते हो ?

 रोहंग्या जेहादी तत्वों के समर्थन में उतरे मान्य रक्तरंगियों (लेफ्टीयों ,वामियों ),सोनिया के बौद्धिक गुलाम सम्मान के योग्य पिठ्ठुओं एक बात समझ लो। यदि यह देश आज़ाद हुआ तो उस नेहरू वंश की वजह से नहीं जिसके लाडले नेहरू ने उन अंग्रेज़ों की परम्परा को ही आगे बढ़ाया था जो भारत -द्वेष पर ही आधारित थी। नेहरु का मन विलायती ,काया मुसलमान  और.... खैर छोड़िये .. बात सांस्कृतिक धारा की हो रही थी उसी पर लौटते हैं। 

भारत को आज़ादी उस सांस्कृतिक धारा ने ही दिलवाई थी जो परम्परा से शक्ति की उपासक थी । यह आकस्मिक नहीं है कि राष्ट्रगान और वन्देमातरम का प्रसव उस बंगाल की  धरती पर ही हुआ जो परम्परा से शक्ति की, माँ दुर्गा की उपासक थी। उसी परम्परा को तिलांजलि दे खुद को दीदी कहलवाने वाली नेत्री ममता आज मूर्ती विसर्जन को एक दिन आगे खिसकाने की बात करती है क्योंकि मुसलमानों का २७ फीसद वोट फ्लोटिंग वोट है यह उस सांस्कृतिक धारा के साथ भी जा सकता है जो गांधी की आत्मा में वास करती थी जो मरते वक्त भी "हे राम "से संयुक्त रहे।

सुयोग्य लेफ्टीयों तुम्हारे बीच सबसे ज्यादा बेरिस्टर रहे हैं कमोबेश तुम्हारा नाता बंगाल से गहरा रहा है जहां से आये प्रणव दा राष्ट्रपति के रूप में अपने आखिरी दिन विदा वेला में भारत के प्रधानमन्त्री मोदी से ये कहलवा लेते हैं "भले माननीय राष्ट्रपति मेरी कई बातों से सहमत न थे लकिन उन्होंने अपने पिता समान नेह से मुझे कभी वंचित नहीं रखा।" यही है भारत राष्ट्र की सांस्कृतिक धारा जो एक तरफ राजा राम के गुण गाती है , मानस- मंदिर में (वाराणसी ) पूजा करती है ,शिव के तांडव और सदा शिव रूप (मंगलकारी )को भी नहीं भूलती।

जेहादी तत्वों के पोषक देश भंजकों अपनी मूल धारा में लौटो -भले मार्क्सवाद की बौद्धिक गुलामी करो लेकिन जेहादी रोहंग्या के साथ मत फिरो गली- कूचों में ,जेहादी तत्वों को यहां से दफह होना ही होगा ,तुम काहे बुरे बनते हो ?

ये देश तुम्हारा सम्मान करेगा।इसकी रगों में बहने वाले खून को पहचानो।  भारत धर्मी समाज  तुम्हें भी गले लगाएगा।
जैश्रीकृष्णा जयश्रीराम जयहिंद के सेना प्रणाम। 

बुधवार, 20 सितंबर 2017

Creator and Creation are one without a second

क्या सोच के बनाई रे तूने ये दुनिया ?

Creator and Creation are one without a second

अक्सर यह मौज़ू सार्वकालिक बने रहने वाला सवाल पूछा जाता है :ईश्वर ने ये सृष्टि बनाई ही क्यों ?

 छान्दोग्य  -उपनिषद का ऋषि प्रश्न करता से कहता है :अपने सृजन से पहले ,अपने अस्तित्व से पहले ये विश्व (गोचर जगत )केवल सनातन अस्तित्व ही था -सत् ही था। यह विश्व अपने निर्माण से पहले  केवल सत् (ब्रह्मण ,Brahman )ही था। वन विदाउट ए सेकिंड। ठीक एक सेकिंड पहले केवल ब्रह्मण ही था (ब्रह्मा जी नहीं ). कोई कच्चा माल मटीरियल काज नहीं था उसके पास कायनात के रचाव के लिए। घड़े के निर्माण के लिए जैसे मृत्तिका (मटीरियल काज )और घड़ा बनाने का चाक (Potters Wheel ),उपकरण या  इंस्ट्रयूमेन्ट  नहीं था। अलबत्ता वह ब्रह्मण स्वयं इंटेलिजेंट या एफिशिएंट काज ज़रूर था। 

ब्रह्मण के पास एक वासना (इच्छा ,डिज़ायर ज़रूर थी )-मैं एक से अनेक हो जावूं। 

"May I Become Many "-Taittiriya Upnishad ,2-6 

इसका मतलब यह हुआ जिसे हम सृष्टि का प्रसव कहते हैं वह एक ही ब्रह्मण की बहुविध प्रतीति है। 

Creation is just an appearance .

यही तो माया है भ्रान्ति है। नित -परिवर्तनशील सृष्टि यदि वास्तविक होती रीअल होती तो उसका कोई कारण ज़रूर होता। 

रस्सी में सांप दिखलाई देना एक प्रतीति है सांप है नहीं और न ही रस्सी  सर्प में तब्दील हुई है।सर्प का दिखलाई देना एक प्रोजेक्शन है मानसी सृष्टि है ,हमारे मन का वहम है। 

अब क्योंकि कायनात वास्तविक नहीं है वर्चुअल है ,इसलिए कारण इसका कोई असल कारण हो नहीं सकता जिसकी तलाश की जाए। 

आपने एक विज्ञापन देखा होगा एक व्यक्ति सालों बाद अपने शहर में आता है टेक्सी में बैठा अपने ही शहर का ज़ायज़ा लेता है -चिल्लाता है ठहरो !ठहरो भाई !यहाँ एक बैंक था। इसी तरह दूसरी जगह पहुँचने पर कहता है यहां एटीम था ,वहां एअरपोर्ट था वह कहाँ गया। जो अभी है अभी नहीं है वही प्रतीति है माया है। 

इसे (माया को )परमात्मा की एक शक्ति कहा गया है नौकरानी भी। परमात्मा का बाहरी आवरण (वस्त्र )ही माया है। हमारा वस्त्र हमारा यह शरीर है। ब्रह्मण कॉमन है दोनों में।ठीक वैसे ही जैसे सृष्टि निर्माण से पहले विज्ञानी एक ही आदिम अणु (प्राइमीवल एटम )की बात करते हैं जो एक साथ सब जगह मौजूद था। तब न अंतरिक्ष था न काल, था तो बस एक अतिउत्तप्त ,अति -घनत्वीय स्थिति बिना आकार का ,शून्य कलेवर अस्तित्व था। ऐसे ही उपनिषद का ऋषि एक सत् (ब्रह्मण )की बात करता है। 

आप पूछ सकते हैं वह वासना (डिज़ायर )आई कहाँ से क्यों आई कि मैं एक से अनेक हो जावूं ?

आप रात भर की नींद के बाद सुबह सोकर कैसे उठ जाते हैं ?

क्या अलार्म क्लॉक की वजह से यदि आप कहें हाँ तो कई और क्यों सोते रहजाते हैं अलार्म की अनदेखी होते देखी  होगी आपने भी । पशुपक्षी क्यों उठ जाते हैं ?उनके पास तो कोई घड़ी  नहीं होती। उपनिषद का ऋषि इस बात का ज़वाब देता है अभी आपकी एषणाएं ,अन फिनिश्ड अजेंडा बाकी है।सुबह उठते ही आप मंसूबे अपने उस आज का ,उस रोज़ का कैज़ुअल बनाने लगते है  

फुर्सत मिली तो जाना सब काम हैं अधूरे ,

क्या करें जहां में दो हाथ आदमी के। 

अच्छे कभी बुरे हैं हालात आदमी के ,

पीछे पड़े हुए हैं दिन रात आदमी के। 

हमारा पुनर्जन्म भी इस अधूरे अजेंडे को पूरा करने के लिए ही होता है। जिसको जो अच्छा लगे करे। भला या बुरा खुली  छूट है।बहरसूरत  काज एन्ड इफेक्ट से कोई मुक्त नहीं है। करतम सो भोक्तम। जब तक आप ये न जान लेंगें ,आप ही ब्रह्मण हैं सत् हैं ईश्वर हैं यह जन्म मरण का सिलसिला बदस्तूर जारी रहेगा। 

ये कायनात ,इस सृष्टि का बारहा  प्रसव होना विलय (Dissolution )होना हम सबकी सम्मिलित वासनाओं की ही अभिव्यक्ति है। 

बिग बैंग सिद्धांत भी यही कहता है: बिग बैंग्स कम एन्ड गो ,दिस प्रेजेंट बैंग इज़ वन  आफ ए सीरीज़ आफ मैनी मोर ,इन्फेक्ट इनफाइनाइट बिग बैंग्स। सबकुछ चांदतारा ,नीहारिकाएं ,बनते बिगड़ते रहते हैं आवधिक तौर पर। उनका होना एक प्रतीति है। 

नींद के दौरान जैसे मैं अव्यक्त हो जाता हूँ ,मुझे अपने स्थूल शरीर का कोई बोध नहीं रहता ,लेकिन मेरा अंतर -सूक्ष्म -शरीर ,अवचेतन बाकायदा काम करता है।वासनाएं अभी भी शेष हैं लेकिन वह कारण शरीर में विलीन हो जाती हैं इस दरमियान। 

इफेक्ट का अपने काज में विलीन हो जाना ही सृष्टि का विलय (Dissolution )कहलाता है। काज का इफेक्ट के रूप में प्रकट होना किरयेशन है ,सृष्टि का पैदा होना है। काज सत् है ब्रह्मण है। 

स्वर्ण और स्वर्ण आभूषण स्वर्ण ही है लेकिन स्वर्ण से आभूषणों का बनना सृष्टि है स्वर्ण का अम्लों के एक ख़ास मिश्र में विलीन हो जाना घुल जाना विलय है।आभूषण स्वर्ण ही हैं अलग अलग रूपाकार एक प्रतीति है।  

पुनरपि जन्मम ,पुनरपि मरणम ,

पुनरपि जननी ,जठरे शरणम। 

एक प्रतिक्रिया ब्लॉग इंडियन साइंस ब्लागर्स एशोशिएशन की उल्लेखित पोस्ट पर :
http://blog.scientificworld.in/2016/07/how-god-create-world-hindi.html

शनिवार, 16 सितंबर 2017

फ़ानूस बन के जिसकी हिफाज़त हवा करे , वो शमा(शम्मा ) क्या बुझेगी जिसे रोशन खुदा करे।

https://veerubhai1947.blogspot.com/

कनागत में बुलेट ट्रेन का उदघाटन करने पर मोदी पर छिद्रान्वेषण करने वाले मार्कवाद के बौद्धिक गुलाम तो धर्म को मानते ही नहीं इनके मुखिया तो इसे अफीम कह आएं हैं न ही इन भकुओं में से किसी को यह मालूम होगा कि कन्या राशि में सूर्य का प्रवेश जिस अवधि में होता है उसे ही श्राद्ध पक्ष कहा समझा माना गया है। हैलोवीन इसी का थोड़ा अलग सा संस्करण है। ये देश तोड़क जो हर बात में देश का विरोध करते हैं ,स्वयं साक्षात जीवित प्रेत हैं। एक श्राद्ध इनके लिए भी होते रहना चाहिए।

इस मुद्दे पर हमने भारत धर्मी समाज के चंद नाम चीन लोगों से बात की है मुद्दा रोहंग्या मुसलमानों से भी जुड़ा। इन मुसलमानों को जिन्हें   लश्करे तैयबा के  एजेंटों ने भारत में आतंक फैलाने की नीयत से घुसाने की कोशिश की है  इनकी हिमायत में भी कई  सेकुलर सड़कों पर आ  गए हैं। भारतधर्मी समाज के मुखिया प्रमुख विचारक डॉ नन्द लाल मेहता वागीश जी ने इस का एक हल यह सुझाया है -ये तमाम लोग जिनमें से कई कुनबों के पास बे -हिसाब जमीनें हैं अपनी जमीन इन रोहंग्या मुसलमानों के नाम कर देवें साथ ही भारत सरकार को ये लिखकर देवें -इन रोहंग्या कथित शरणार्थी लोगों का वोट नहीं बनाया जाएगा।

मसलन अखिलेश ,लालू ,सोनिया के पास ही बे -हिसाब संपत्ति है। ये पहल करें इस दिशा में यदि सचमुच मानवीय पहलू  इनकी नज़र में है (जिससे इनका कोई लेना देना रहता नहीं है ),इनका एक ही एजेंडा है मोदी बैटिंग ,मोदी हैटिंग एन्ड हिटिंग। इन देश भाजकों को यह नहीं पता -

फ़ानूस बन के जिसकी हिफाज़त हवा करे ,

वो शमा(शम्मा ) क्या बुझेगी  जिसे रोशन खुदा करे।

जिसे वाह -  गुरु की कृपा प्राप्त है ,कृष्णा का आशीष जिसके साथ है मोहम्मद साहब की दुआएं जिसे प्राप्त हैं उसका ये चंद फुकरे क्या बिगाड़ लेंगे जो आज कनागत की बात करते हैं ,असहिंष्णु जिसे घोषित कर चुके हैं उस भारत से सहिष्णुता की आज ये बात करते मानवीय पक्ष की बात करते हैं।

मैं सरयू तीरे इन भकुओं का  तरपन करता हूँ। 

शुक्रवार, 15 सितंबर 2017

सगुण मीठो खांड़ सो ,निर्गुण कड़वो नीम , जाको गुरु जो परस दे ,ताहि प्रेम सो जीम।

वैदिक धर्म (हिदुत्व )के एक बड़े प्रतीक चिन्ह के रूप में एकाक्षरी (मनोसिलेबिल )समझे गए ॐ  का क्या महत्व है?

अमूमन किसी भी मांगलिक अनुष्ठान से पूर्व एक गंभीर और निष्ठ उदगार स्वत :प्रस्फुटित होता है हमारे मुख से एक अक्षरी ॐ। ये किसी भी अनुष्ठान के आरम्भ और संपन्न होने का सूचक होता है। चाहे फिर वह वेदपाठ हो या नित नियम  की वाणी (प्रार्थना ).गहन ध्यान -साधना ,मेडिटेशन का केंद्रबिंदु रहा है ॐ।

परमात्मा के नाम के करीब -करीब निकटतम बतलाया है ॐ को आदिगुरु शंकराचार्य ने। जब हम ॐ कहते हैं तो इसका मतलब परमात्मा से हेलो कहना है ,सम्बोधन है यह उस सर्वोच्च सत्ता की  प्रतिष्ठार्थ।

ॐ की बारहा पुनरावृत्ति (जप )वैराग्य की ओर ले जा सकती है इसलिए इसके जाप को  सन्यासियों के निमित्त समझा गया है। किसी भी प्रकार की वासना (इच्छा )सांसारिक सुख भोग की एषणा का नाश करता है इसका जप ऐसा समझा गया है। कहा यह भी गया यह गृहस्थियों को नित्य प्रति के आवश्यक सांसारिक कर्मों से भी विलग कर सकता है। सन्यासियों का ही आभूषण हो सकता है ॐ जो संसार से ,सब कर्मों से विरक्त हो ईश -भक्ति ,ज्ञानार्जन को ही समर्पित हो चुका है।

अलबत्ता इसका सम्बन्ध अन्य सभी मन्त्रों से रहा है ,ॐ अक्षर हर मन्त्र से पहले आता है ताकि गणपति (गणेश) मन्त्र जाप में कोई विघ्न न आने देवें। माण्डूक्य उपनिषद के अनुसार ॐ का निरंतर मनन अपने निज स्वरूप (ब्रह्मण ,रीअल सेल्फ )के सहज बोध की ओर ले जा सकता है। "ओंकार" का ज्ञान -बोध खुद को जान लेना है।

The name and the one that stands for the name are identical (are one and no second ).When we call a name there is an image of an object in our mind .

यह संसार नाम और रूप ही है। दोनों को विलगाया नहीं जा सकता। नाम का लोप होते ही संसार का लोप हो जाएगा। इसीलिए ओंकार की पुनरावृत्ति उसे साकार कर देती है जिसको यह सम्बोधित है।

ओंकार में तीन मात्राएँ "अ "; "उ " और  "म "शामिल हैं। ओ (O) दो मात्राओं का जोड़ है डिफ्थॉंग हैं अ और उ का। यानी अ -अकार और म -मकार।

"अ" को जागृत अवस्था का प्रपंच कहा गया है (प्रपंच या माया  इसलिए यह वे - किंग- स्टेट भी स्वप्न ही है फर्क इतना है इसकी अवधि औसतन ६० -७० वर्ष है बस जबकि नींद में आने वाले स्वप्न अल्पकालिक डेढ़ दो मिनिट से ज्यादा अवधि के नहीं होते .

उकार (उ )का सम्बन्ध उपनिषद ने स्वप्नावस्था से जोड़ा है। स्वप्न दृष्टा और स्वप्न देखने के अनुभव से जोड़ा है। जागृत अवस्था और स्वप्नावस्था परस्पर एक दूसरे का निषेध करते हैं। स्वप्नावस्था में आप को  न तो  स्थूल शरीर का बोध है न ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रीय का। स्वप्न देखने वाला मन ,स्वप्न के आब्जेक्ट्स सब स्वप्न की ही सृष्टि है जहां परबत ,समुन्दर से लेकर हर बड़े छोटे आकार की चीज़ें आप के यानी स्वप्न-दृष्टा के  द्वारा देखी जा रहीं  हैं ,स्वप्न के समय आपका अवचेतन मन सक्रीय है ,सूक्ष्म शरीर कार्यरत है स्थूल को कुछ पता नहीं है वह तो निढाल पड़ा है।

मकार (म )सुसुप्ति या गहन निद्रा (डीप स्लीप स्टेट )की स्थिति है जहां केवल आपका कारण शरीर(Causal Body ) शेष रह गया है ,वासनाएं हैं। सुबह उठकर आप कहते हैं -रात को मस्त नींद आई। ये कौन किस से कह रहा है वह कौन था जो गहन निंद्रा में था। फिर वह कौन है जो अब जागृत अवस्था में है ,जो स्वप्न देख रहा था वह कौन है। और मैं (मेरा स्व ,रीअल सेल्फ ) क्या है।

उपनिषद का ऋषि कहता है जो इन तीनों अवस्थाओं को रोशन कर रहा है वह 'तू '(यानी मेरा निज स्वरूप है रीअल आई है ).

अ ,उ ,म त्रय के और भी अर्थ निकाले गए हैं -तीन वेद(ऋग ,यजुर,साम )  -तीन लोक (मृत्य -स्वर्ग और इन दोनों के बीच का अंतरिक्ष ),तीन देवता (अग्नि- वायु- सूर्यदेव ),ब्रह्मा -विष्णु -महेश ,सतो -रजो -तमो गुण (त्रिगुणात्मक माया ). स्थूल -सूक्ष्म -कारण शरीर की तिकड़ी आदि। ज़ाहिर है तमाम सृष्टि का पसारा (विस्तार )इन तीन मात्राओं -अ,उ ,म में समाविष्ट है।

हम कह सकते हैं -Om refers to the personal form of  God ,the one with attributes i.e सगुण ब्रह्म।

मंगल ध्वनि ॐ  दो उच्चारणों के बीच का मौन -Impersonal form of God यानी निर्गुण ब्रह्म कहा जा सकता है। यह मौन निराकार है ,आयाम -हीन ,आयाम -शून्य ,Dimensionless है।

जबकि अ ,उ और म एक ड्यूरेशन (अवधि )लिए हैं ,मौन निर -अवधिक  है। इस प्रकार सिद्ध हुआ ओंकार ही प्रभु हैं प्रभु का नाम हैं।

महाकवि पीपा कहते हैं :

सगुण मीठो खांड़ सो ,निर्गुण कड़वो नीम ,

जाको गुरु जो परस दे ,ताहि प्रेम सो जीम। 

गुरुवार, 14 सितंबर 2017

माथे की बिंदी आबरू का शाल है हिंदी , है देश मिरा भारत ,टकसाल है हिंदी।

हिंदी दिवस पर विशेष 

माथे की बिंदी आबरू का शाल है हिंदी ,

है देश मिरा  भारत ,टकसाल है हिंदी। 

है आरती का थाल मिरी  सम्पदा हिंदी ,

संपर्क की सांकल सभी है खोलती हिंदी। 

गुरुग्रंथ ,दशम ग्रन्थ भली रही हो कुरआन ,

एंजिल हो धम्मपद भले फिर चाहें पुराण ,

है शान में सबकी मिरी  लिखती रही जुबान ,

हैं सबके सब स्वजन मिरे ,सबकी मेरी हिंदी।

कर जोड़ के प्रणाम करे ,आपको हिंदी।  

है शान में सबकी मिरी , लिखती रही जुबान ,

शोभा में सबकी शान में, लिखती मिरी हिंदी। 

मैं तमाम हिंदी सेवकों को उनकी दिव्यता को प्रणाम करता हूँ। 

बुधवार, 13 सितंबर 2017

गायत्री मंत्र एक विहंगावलोकन

गायत्री मंत्र एक विहंगावलोकन

उपनयनसंस्कार के वक्त (वेदों का  अध्ययन शुरू करवाते वक्त )गुरु अथवा पिता गुरुकुल परम्परा के मुताबिक़ यह मंत्र छात्र के कान में कहता उच्चारता था ताकि वह विधिवत वेदों का अध्ययन आरम्भ कर सके। तमाम वेद वांग्मय का सार कहा गया है गायत्री  मंत्र को।

ऋग्वेद में सात छंद (मीटर )आते हैं इन्हीं में से एक है गायत्रीछन्द। इस छंद के तीन पाद (चरण या पैर ,फुट )हैं। प्रत्येक पाद में आठ अक्षर आते हैं। इस प्रकार गायत्री  छंद २४ अक्षरीय है।

सूर्य  की स्तुति में इसका पाठ किया जाता है इसीलिए इसे सावित्री -मंत्र भी कहा गया है। सवितृ  माने सावित्री यानी भगवान्  सूर्यदेव का गुणगायन है स्तुति है प्रार्थना है सूर्य देव से- वह हमें  सही मार्ग पर चलाये हमारी मेधा को प्रज्ञा ,बुद्धिमत्ता प्रदान करे।

अन्यान्य मंत्र भी गायत्री छंद-बद्ध किये गए हैं। अमूमन हरेक  देवता की  स्तुति में इस छंद में रचनाएं हैं।इनमें गायत्री मंत्र सब से ज्यादा लोकप्रिय है।

मंत्र पाठ हम  सभी जानते हैं इस प्रकार है :

ॐ भूर्भुवस्सुवः ,तत् सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात

यहां ॐ परमात्मा को सम्बोधित है उसी का नाम है इसमें तीन अक्षर है अ ,उ ,म जो तीन उदगार (अभिव्यक्तियाँ )व्याहृतियाँ हैं। तीन Utterances हैंतीन  कथन हैं।

भूः भुवः सुवः   कथन हैं। उदगार हैं ये तीन जो ब्रह्माजी ने सृष्टि - रचना के क्षणों में अभिव्यक्त किये हैं उच्चारे हैं। इन्हें आध्यात्मिक ,रहस्यमय - ध्वनि -प्रतीक  भी समझा  गया  है।अनेकार्थ हैं इन ध्वनियों के जिनमें से एक है :

भूः मृत्यलोक ,भुवः पृथ्वी और सूर्य के बीच  के अंतरिक्ष तथा सुवः स्वर्ग के लिए आया है। इनसे व्युत्पन्न अर्थ भूः सत या सनातन अस्तित्व के लिए भुवः चित या ज्ञान के लिए और सुव: आनंद या ब्लिस के लिए आया है।यानी सच्चिदानंद। सत्यम ज्ञानम् अनंतं ।
अन्य अर्थों में सृष्टि की उत्पत्ति -पालना -और विलय (विनाश )लिए  हैं। जागृत ,स्वप्न एवं सुसुप्ति की तीनअवस्था का प्रपंच  स्थूल -सूक्ष्म -कारण तीन शरीर आदि भी अभिव्यक्त हुए हैं। गायत्री मन्त्र से पहले ये तीन उदगार ही अभिव्यक्त किए  जाते हैं।
ॐ वह परमात्मा भूः है ,भुवः है स्वः है। यानी वह एक ही सृष्टिकर्ता -पालनहार -और संहारकर्ता है सृष्टि का। वही सच्चिदानंद है वाहगुरु है अल्लाह है यहोवा है। वही सनातन अस्तित्व अनंत ज्ञान और कभी भी कम न होने वाला सदैव कायम आनंद है।गुरपरसादि  है।

वही तिरलोकी(त्रिलोक ) है जागृति स्वप्न एवं सुसुप्ति (डीप स्लीप स्टेट )का प्रपंच है। स्थूल -सूक्ष्म -कारण शरीर -त्रय है।

ये तीन उदगार ही गायत्री  के तीन पाद हैं पहला पाद है -तत्सवितुर्वरेण्यम दूसरा भर्गो देवस्य धीमहि और तीसरा यो न: प्रचोदयात।

ऐसा समझा जाता है की ॐ के  तीन अक्षर अकार (अ ),उकार (उ )और मकार (म ),तीन अभिव्यक्तियों ,भूः भुवः स्वः के उद्गम स्रोत हैं। इन तीन अक्षरों से ही गायत्रीछंद  के  तीन पाद बने हैं। प्रत्येक पाद से एक वेद निसृत है पहले से ऋग्वेद दूसरे से यजुर्वेद  तथा तीसरे से सामवेद  . इसीलिए गायत्री को वेदमाता भी कहा गया है वेद -जननी है गायत्री।     

प्रात : सूर्योदय से पहले और संध्या गौ -धूलि सूर्यके अस्ताचल गमन से पहले का वंदन है यह मन्त्र हम सभी के लिए।

मध्य दिवस काल (मिड - डे )में भी लोग सूर्य उपासना करते है। इसका बारम्बार उच्चारण संध्यावंदन का एक महत्वपूर्ण अंग है।

दो वाक्यों की निर्मिति भी माना जा सकता है इस मन्त्र को -पहला :हम ध्यान लगाते हैं प्रार्थी और प्रशंशक हैं उस सूर्य देव की स्वयं प्रकशित ख्यात भव्यता कांतिमान और बुद्धिमत्ता के  जो हमारे लिए सदैव ही वरेण्य है। मनभावन मनमोहक है।

सूर्यको प्रत्यक्ष देवता कहा गया है क्योंकि हम इसके प्रत्यक्ष दर्शन करते हैं इसका आलोक वस्तुओं से लौटकर हमारी आँख को देखने की क्षमता प्रदान करता है। वैदिक संस्कृति सूर्यदेव की सहज उपासक रही आई है। उल्लास और प्रकाश और ताप को बिखेरने वाला देव माना गया है सूर्य देव को पृथ्वी पर जीवन और किसीभी प्रकार की वनस्पति का स्रोत भी सूर्यदेव ही माने समझे गए हैं। अज्ञान को दूर करता है इसका आलोक अज्ञान के अँधेरे  से हमें ज्ञान की उजास की ओर लाता है यह स्वयं प्रकाशित   देव।

दूसरा  वाक्य सीधा सरल प्रत्यक्ष बोध में आता है :'यह ही प्रचोदयात ' यो नः प्रचोदयात -यह हमें सही मार्ग पर ले चले हृदय गुहा के अन्धकार अज्ञान को भगा हमें सत्य की और ले जाकर हमारे अपने ब्रह्म स्वरूप का बोध कराये। हमारी मेधा को प्रज्ञा में बदले।

हमारा मन बाहरी प्रभावों उद्दीपनों की चपेट में आता है और अंतकरण से भी  विचार सरणी आती हैं।हमारे मन बुद्धि सोचने की शक्ति चित्त को  बाहरी प्रभावों से निकाल सही मार्ग की ओर ले चलें सूर्यदेव।

इस सृष्टि ब्रह्माण्ड पूरी  कायनात के संदर्भ में सूर्य देव को सृष्टा पालन करता कायम रखने वाले देव का दर्ज़ा प्राप्त है -प्रकाश और सौर ऊर्जा के  अभाव सचमुच में जीवन चुक जाए।

पृथ्वी  पर सारी वनस्पति और सारा दृश्य प्रपंच सूर्यदेव का ही प्राकट्य है। व्यक्त अभिव्यक्ति है। निर्गुण ब्रह्म का सगुण  रूप है सूर्यदेव। 

ताप ऊर्जा और प्रकार-अंतर  से बरसात लाने वाला भी सूर्य देव ही है। जब किसी देवता के प्रसादन  के लिए हवन करते हैं हव्य सामिग्री अग्नि के हवाले की जाती है।यही सूक्ष्म रूप अंतरित हो सूर्य की  किरणों पर सवार  हो सूर्य में  संग्रहित हो जाती है। कर्मफल दाता के बतौर सूर्य देव हमारे सद्कर्मों के फलस्वरूप वर्षा जल प्रदान करता है। जल ही जीवन है जल चक्र को सूर्य ही चलाये रहता है। भगवद्गीता में कहा गया है यज्ञ ही बरसा लाते हैं।इसीलिए सूर्य को गॉड का दर्ज़ा प्राप्त है। सूर्य को ब्रह्म होने का दृष्टा  बन सब कुछ साक्षी भाव से देखने का दर्ज़ा भी प्राप्त है मेरे तमाम विचारों का नियामक है सूर्य देव मेरी हृद गुफा में उसी के ज्ञान का प्रकाश मेरे ब्रह्मण (Brahman ब्रह्मन ) स्वरूप को उजागर करे। वही ज्ञान स्वरूप बुद्धिमता का देव सूर्य मेरे विचारों की  बुद्धि का कम्पास बने यही भाव है गायत्री का।
व्यवस्था सृष्टि का स्वरूप है बाहरी विक्षोभ सतही ही है। इसी अव्यवस्था के अंदर लय -ताल समरसता व्याप्त है। यही लयताल मेरा निजस्वरूप भी है। इस प्रकार  मार्ग और लक्ष्य दोनों एक साथ है गायत्री मन्त्र। हम उस सूर्यदेव का ध्यान लगाते हैं जो हमारा लक्ष्य है जो हमारे मन बुद्धि विचार सरणी को सन्मार्ग पर ले जाए। सद्कर्म कराये हमसे। ताकि मैं अपनी निजता को  आँज  लक्ष्य के निकटतर आ सकूं।वह मुझसे भिन्न कहाँ हैं मैं इस द्वैत को पहचान सकूं , मान सकूं यही अद्वैत वेदांत है। मेरे निज स्वरूप और ब्राह्मण में अद्वैत है द्वैत एक प्रतीति मात्र है मैं इसे समझ सकूं यही इस मन्त्र के निहितार्थ हैं।

ॐ शान्ति।

सगुण मीठो खांड़  सो,निर्गुण कड़वो नीम  ,

जा को गुरु जो परस दे ,ताहि प्रेम सो जीम।

जयश्रीकृष्ण।

विशेष ;प्रपंच शब्द मेरी इस अभिव्यक्ति में कई मर्तबा आया है। स्पस्ट कर दूँ माया के लिए प्रयुक्त किया जाता है यह शब्द।जो अनुपस्थित हो लेकिन अपने होने का बोध कराये वह माया है। जो सत्य प्रतीत हो , असत्य भी और दोनों  ही  नहीं हो वह माया है। जैसे स्वप्न एक प्रतीति है अल्पकाल की ,एक प्रपंच है जो जागने पर गायब हो जाता है वैसे ही जागृति भी एक प्रपंच है दीर्घकाल का (सत्तर अस्सी साल होती है आदमी की उम्र उसके बाद यह काया कहाँ चली जाती है यही तो माया है ,जो ट्रान्जेक्शनल रियलिटी ज़रूर है सत्य नहीं है लेकिन असत्य भी नहीं है क्योंकि मेरा  उसके साथ लेन  देन  है ट्रांसजेक्शन है।  उसी तरह सुसुप्ति (डीप स्लीप स्टेट )एक प्रपंच है कई मर्तबा बड़ी मस्त नींद आती है सुबह उठके हम कहते हैं रात बहुत अच्छी नींद आई। कौन किस्से यह कह रहा है कहने वाला कौन है ?सोया कौन था ?उठा कौन है ?यही प्रपंच है। सत्य वह है जो इन तीनों अवस्थाओं जागृति -स्वप्न -सुसुप्ति को आलोकित करता है साक्षी बनता है इन तीनों स्टेटस का ,वही मेरा असल स्वरूप है रीअल सेल्फ है ब्रह्मण है।मैं वही हूँ। 


मंगलवार, 12 सितंबर 2017

घर -दुआरे,मांगलिक अवसरों पर मंदिरों के बाहर रंगोली क्यों सजाई (बनाई )जाती है ?

घर -दुआरे,मांगलिक अवसरों पर मंदिरों  के बाहर  रंगोली क्यों सजाई (बनाई )जाती है ?

रंगोली घर-दुआरे बनाना श्री लक्ष्मी जी का आवाहन करना है। धनसंपदा वैभव की खजांची हैं विष्णुपत्नी श्रीलक्ष्मीजी। रंगोली पूजा का प्रतीक है। गृहलक्ष्मी का मतलब है आपका घर लक्ष्मी का प्रकट रूप है प्राकट्य है मनिफेस्टेशन है गॉडेस आफ प्रॉस्पेरिटी का।

रंगोली सजाने के लिए अमूमन चावल का आटा (राइस फ्लोर )ही काम में लिया जाता है जो चींटियों का अन्य सूक्ष्म जीवों का अंततय : आहार बनता है ,कीट जगत से आपको जोड़ती है रंगोली। इस पूरी कायनात में परस्पर सब एक दूसरे से सम्पर्कित हैं कनेक्टिड हैं।

ख़ास मांगलिक मौकों पर विशेष देवताओं के पूजन के निमित्त रंगोली सजाई जाती है। दीक्षांत समारोह महा -विद्यालयों का विश्व -विद्यालयों का रंगोली का साक्षी बनता है -बिस्मिल्ला -खां  की शहनाई के स्वर और रंगोली की सजावट मौहोल को चार चाँद लगा देती है। शोभायात्रा इसी मांगलिक ध्वनि के साथ शुरू होती है।

दीगर है की रंगोली आपकी कलात्मकता की भी एक स -शक्त अभिव्यक्ति है। रंगोली जोश -औ - खरोश और पूजा दोनों का प्रतीक है। दीपावली ,पोंगल आदि पर्वों पर रंगोली की शान औ सजावट देखते ही बनती है।

स्वास्तिक डिज़ाइन के अपने निहितार्थ हैं रंगोली में -एक तरफ यह ओंकार का प्रतीक है दूसरी और कालचक्र का। स्वास्तिक चक्र की एक भुजा ऊपर जाती है तो एक नीचे ,एक दक्षिणांगी रहती है तो एक वामांगी। ऊर्ध्वगामी भुजा सतयुग और अधोगामी द्वापर(भौतिक  द्वन्द्व डायलेक्टिकल मटीरियलिज़्म ) को दर्शाती है वामांगी -कलयुग का प्रतीक है और दक्षिणांगी त्रेता का।

रंगोली में ज्यामितीय आकार यंत्रों को दर्शाते हैं जो इतर - देवों के पूजन हेतु हैं। 

पूजा अर्चना के दौरान घर -मंदिर आदि में शंख क्यों बजाया जाता है ?

पूजा अर्चना के दौरान घर -मंदिर आदि में शंख क्यों बजाया जाता है ?

शंख बजाने से कथा शुरूहोने की और फिर संपन्न होने पर आरती होने की इत्तला हो जाती है। संचार का एक ज़रिया भी रहा है शंख ध्वनि। महाभारत युद्ध शुरू होने से पहले सब अपने अपने शंख बजाकर युद्धारम्भ की खबर देते हैं। अलबत्ता शंख ध्वनि से तकरीबन आधा - किलोमीटर दायरे में रोगकारकों का विषाणुओं का नाश होता है। शंख ध्वनि मांगलिक समझी गई है। जब कोई बुजुर्ग अपनी उम्र पूरी करके इस दुनिया से उठता है तब भी शंख बजाया जाता है। चंवर भी झला जाता है अर्थी के गिर्द।

शंखध्वनि चित्तशामक का काम करती है शांत  करती है चित्त को फलतय : मन भक्ति उन्मुख हो जाता है। 

नदियों में गंगा का शीर्ष स्थान क्यों ?


नदियों में गंगा का शीर्ष स्थान क्यों ?

जबकि विश्वकी सभी नदियाँ जीवन और संस्कृतियों का पोषण करती आईं हैं गंगा का अपना वैशिठ्य रहा आया है। कहा जाता है -एक बार ब्रह्माजी नारायण (महा-विष्णु )के चरण धौ रहे थे ,पाद प्रक्षालन कर रहे थे ,यही विष्णु -चरणोदक स्वर्ग की नदी बन बहने लगा। उसी समय पृथ्वी पर राजा भागीरथ अपने पुरखों की भस्म के परि -शोधन  ,उनकी ऐशिज  को सेंकटिफ़ाइ हेतु  तप कर रहे थे,फलस्वरूप गंगा जी भू -मुखी हो वेगवती धारा के साथ पृथ्वी की और बढ़ने लगीं ,इस आवेग से पृथ्वी दो फाड़ हो सकती थी ,लिहाज़ा वेव -ब्रेकर्स के तौर पर शिव ने इसे अपनी जटाओं की ओर  मोड़ा ,प्रवेग को शांत करके पृथ्वी की और पुन :मोड़ दिया।

लिहाज़ा रजोगुण प्रधान ब्रह्माजी ,सतोगुणप्रधान विष्णु और तमोगुण के स्वामी शिव का स्पर्श गंगे को मिला है। इसके जल को गंगा जल कहा गया है जिसमें घुलित ऑक्सीजन की मात्रा गौ -मुख से निकासी होते ही अधिकतम रहती है इसीलिए गंगा जल यहां स्रोत से लिया गया कभी सड़ता नहीं है। भले आज हमारी करतूतों के चलते कहानी और है लेकिन श्रद्धा और आस्था चुकी नहीं है भले नदियाँ तो क्या दुनिया भर  के समुन्दर भी स्वत :शोधन आज नहीं कर पा रहें हैं आइल स्पिल्स के चलते। तमाम और कारक हैं जिनकी चर्चा करना हमारा मंतव्य यहां नहीं है।

"आदि -शंकराचार्य" अपने  "गंगा -स्त्रोत्रं" में कहते हैं -जो एक मर्तबा भी गंगा में डुबकी लगा लेता है उसे फिर दोबारा माँ के गर्भ में जठराग्नि में लौटकर उलटे लटकना नहीं पड़ता -पुनरपि जन्मम पुनरपि मरणम ,पुनरपि जननी जठरेशयनम -से वह मुक्त हो जाता है।

"आर्य" यहीं इंडो  -गेंजेटिक प्लेन्स में रहे पनपें  हैं विकसें हैं। काशी -प्रयाग -हरिद्वार -ऋषिकेश से लेकर रुद्रप्रयाग ,कर्णप्रयाग आदि उत्तराखंड के अनेक प्रमुख सांस्कृतिक केंद्र यहीं पनपें हैं जहां संस्कृति का लगातार पल्लवन हुआ है।

गंगा ज्ञान का प्रतीक है जो गुरु के मस्तिष्क से निसृत होकर शिष्य परम्परा की और आया है। ज्ञान की सतत प्रवहमान धारा है गंगा महज नदी नहीं है।

अनेक ऋषियों का तप फल गंगा जल लिए हुए है। "शब्द" से गंगा -जल का अभिषेक हुआ है। यह आकस्मिक नहीं है उत्तर भारत के तमाम लोग एक मर्तबा रामेश्वरम के समुन्दर में डुबकी लगाना चाहते हैं तो दक्षिण के हर की पौड़ी - हरिद्वार का रुख करते हैं। हर कोई गंगासागर में भी स्नान करना चाहता है जो उत्तरभारत को बंगाल की खाड़ी  और दक्षिण के समुन्दर से जोड़ता है। इसप्रकार गंगा हमारी सर्व -समावेशी सांस्कृतक धारा का सशक्त न्यूक्लियस बनी हुई है।यूं ही नहीं गया गया है -गंगा मेरी माँ का नाम बाप का नाम हिमालय

https://www.youtube.com/watch?v=Donn6OgYV-g

सोमवार, 11 सितंबर 2017

पुजारी ईश की आरती उतारने के बाद आरती का थाल भक्तों तक लाता है,इसका क्या मतलब होता है ?

पुजारी ईश की आरती उतारने के बाद आरती का थाल भक्तों तक लाता है,इसका क्या मतलब होता है ?

अक्सर पूजा के प्रकार के अनुसार दीपशिखा एक से लेकर पांच लौ वाली भी होती है। जो पांच कोशों का प्रतीक है (Five sheaths of life force).दरसल जो शिखा (फ्लेम ,दीप  की लौ -ज्योति )ईश को आलोकित कर चुकी है उसका संपर्क ईश से हो चुका है। अब वह साधारण ज्योति नहीं रही है जैसे ईश्वर पर अर्पण करने के बाद प्रसाद में अर्पित खाद्य सामिग्री अब प्रसाद ही कहलाती है केला अब मात्र केला नहीं रहा ,प्रसाद (परसादा )बन गया। वैसे ही यह ज्योत अब आशीष प्राप्त ज्योत है ,भक्त इसके ऊपर अपने हाथों की हथेली पलांश को रखता है फिर इसका स्पर्श अपनी आँखों से कराता है।ऐसा करके वह अनुग्रह प्राप्त करता है ईश की।  पुजारी यहां गुरु समान ज्ञान उजास कर मय -ईश- अर्पित- ज्योत के रागद्वेष ,ईरखा (ईर्षा )आदि नकारात्मक वृतियों का नास कर रहा है। यही निहितार्थ हैं भक्तों तक आरती लाने का। 

हाँ एक बात और अर्थ ,पुष्पम पत्रं के रूप में हम जो भी कुछ ईश को अर्पित करते हैं। वह उसे स्वीकारता है। ये नहीं है कि ईश्वर को कुछ पदार्थ चाहिए वह तो आपकी मुक्ति तनमन धन समर्पण ,का प्रतीक है रुपया पैसा डॉलर जो भी आप समर्पित करते हैं इस सम -अर्पण  भाव से आप अपने अहम (अहंता भाव से )मुक्त होते हैं। ईश्वर तो स्वयं दाता है अलबत्ता संस्था को चलाये रखने उसके रख रखाव के लिए अर्थ (पदार्थ )भी चाहिए। फिर आपके पास अपना है क्या सब कुछ तो उसी का दिया हुआ है। इसीलिए कहा गया -तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा। 

रविवार, 10 सितंबर 2017

"पूजा" के बाद"आरती "करने के निहितार्थ क्या हैं ?क्यों की जाती है किसी भी पूजा के सम्पन्न होने पर आराध्यदेव की आरती?

"पूजा" के बाद"आरती "करने के निहितार्थ क्या हैं ?क्यों की जाती है किसी भी पूजा के सम्पन्न होने पर आराध्यदेव की आरती?

ईष्ट की प्रतिमा के गिर्द प्रज्वलित दीप -थाल को घुमाने का एक कारण यह रहा आया है आज भी दक्षिण  भारत के अधिकाँश मंदिरों के गर्भगृह में बिजली का बल्ब नहीं जलाया जाता है। मात्र दीपक का धीमा प्रकाश ईश को रोशन करता है। उसके आभूषणों की दमक और कांति हम तक पहुँचती है। पुजारी आरती उतारता है ईश को समूचा साफ़ साफ़ आलोकित करने के लिए ताकि उसका दर्शन ठीक से हो सके सर्वांश  में।

गर्भ गृह हमारे हृदय की गुफा की तरह हैं जहां एक साथ ईश और हमारे अज्ञान का अन्धकार है। आरती में कपूर जलाये जाने का एक विशेष अर्थ यह रहता है -कपूर पूरा जल जाता है। दहन सौ फीसद होता है। शेष कुछ नहीं बचता कार्बन (कालिख ),के रूप में। हमारा अज्ञान नष्ट हो अपने ब्रह्म स्वरूप को निरंजन (बिना कालिख)होने को हम जान सकें। आखिरकार एक ही चेतन परिव्याप्त है सृष्टि में। करता और करतार एक ही हैं। किर्येटर एन्ड किरयेशन आर वन एन्ड देअर इज़ नो सेकिंड। देअर इस आनली गॉड।

पूजा आरती आदि भले द्वैत का बोध कराये। इसकी  परिणति अद्वैत में ही होती है। बस भांडा साफ़ रहे हमारा मन स्वच्छ रहे। पूजा अर्चना शुद्धिकरण का एक ज़रिया भर है। मंज़िल अद्वैत ही है जहां पूजित और पुजारी दो नहीं हैं। दो की जस्ट अपियरेन्स है।