रविवार, 21 जनवरी 2018

मुखबरी से अफसरी तक का सफर

जैसे -जैसे २५ जनवरी नज़दीक आ रही है अंग्रेजी पत्रकारिता का सेकुलर तबका अपने बिलों से निकलके मुखरित हो रहा है। कितना अंतर है दोनों भाषाओं की पत्रकारिता में।लगता है हिंदी पत्रकारिता में एक भी सेकुलर नहीं है।  


कल एक महोदय जो पूर्व में केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड से ताल्लुक रखते थे  अंग्रेजी के एक और रिसाले में प्रलाप कर रहे थे। लगता था सनातन धर्म का कोई ऐसा ग्रंथ नहीं है जो इन महाशय  ने न पढ़ा हो क्या रामचरित मानस क्या वाल्मीकि रामायण ,वृहद् -आरण्यक उपनिषद ,पुराण ,उप -पुराण आगम निगम सबके माहिर लगते थे ज़नाब। 

'कुमार सम्भव' का हवाला देते हैं ये साहब कहते हैं इसमें शिव पार्वती की रति क्रीड़ा का आत्यंतिक वर्रण है। लेकिन उस वक्त किसी को कोई एतराज न था। तुलसी दास की आलोचना की भी ये बात करते हैं लेकिन ये नहीं बताते -"कुमार सम्भव" लिखने के बाद कालिदास ने "रघुवंश" भी लिखा था तब जाकर वह उस जगत जननी माँ पार्वती के शाप से मुक्त हुए थे जिसके प्रभाव से  कोढ़ हो गया था कालिदास को। 

वाल्मीकि रामायण चारों वेदों का संयुक्त अवतार है जिसमें जो कुछ है सब वेद सम्मत है और तुलसीदास वाल्मीक का ही अवतार हैं। जिस इंटरनेट का हवाला दे रहे हो बांच लो उसी पर। (स्वामी राघवाचार्य द्वारा वाल्मीक रामायण पर रामकथा श्रृंखला जो समन्वयन है रामायण और रामचरित -मानस का। ) . 

जो इस देश की आंच रही है काम रस से आगे निकलके राम रस  का आस्वाद लेना उसका मज़ाक उड़ा रहे हैं आप। 

 ये इन अंग्रेजीपरस्त सेकुलरों   को दिखाई दे भी कैसे। 
ये अंग्रेज़ों की मुखबरी से शुरू करके आज़ाद भारत में अफसरी तक पहुंचे हैं। इन्हें अपने माँ बाप का चित्रण करना चाहिए जिन्होनें इन्हें पैदा करके इस देश पे बड़ा उपकार कर दिया।इन्हें खुला छोड़ दिया पूर्वजों की निंदा करने के लिए।  

माँ के पेट से ये काम रसपान करते आएं हैं।सबके सब कामोदरी हैं कहते अपने आपको कॉमरेड्स हैं।  अभिव्यक्ति की आज़ादी की बात करते हैं भले अपने पूर्वजों की इस देश के गौरव की राष्ट्रीय अस्मिता की निंदा करनी पड़े।
लौंडियाँ ही नँचानी  हैं तो ४०० क्या ८०० दीपकों के साथ नचाओ -कौन रोकता है बीच में इतिहास की उन वीरांगनाओं को क्यों लाते हो जिन्होंने लम्पट लुटेरों  से औरत को लूट का माल समझने वाले यवनों से इस देश की इज़्ज़त को बचाने के लिए जौहर को  गले लगाया। 

ऊपर से ये महाशय इंटरनेट पर सब कुछ मिलता है जुमला भी उछालते हैं। बिलकुल ठीक है सब कुछ है वहां लेकिन काम -रस के अलावा राम -रस भी है इंटरनेट पर। सावन के अंधे सेकुलरों को केवल हरा ही हरा नज़र आता है। 

अगर किसी बॉलीवुड भट्ट और भंसाली ने डिब्बे का दूध नहीं पीया है तो "शैतान की आयतें" / "सैटेनिक वर्सेज "पर फिल्म बनाके दिखाए। 

फिल्म तो दूर तुष्टिकरण की नीति के तहत राजीव गांधी प्रबंध ने इस किताब को भारतीय महाद्वीप  में  घुसने ही नहीं दिया था। सलमान रुश्दी के खिलाफ फतवा ज़ारी हो गया था। बरसों गुमनामी की ज़िंदगी बसर की उन्होंने। 

भारत धर्मी समाज क्या किसी बॉलीवुड भट्ट की   रखैल है ?अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर जो मर्ज़ी करे वह।  
अरे इतिहास ही पढ़ना लिखना है तो "भारत के स्वर्णिम  अध्याय के छः पृष्ठ "पढ़ो -लखनऊ से प्रकाशित है ये किताब दो खंडों में -विनायक दामोदर सावरकर की। 
मसाला फिल्म बनाने के लिए इतना और ऐसा नाटक करने की कहाँ जरूरत है जिसमें देश का इतिहास कलंकित हो।कभी महाराजा -महारानियों को नृत्य करते देखा है इन सेकुलर पुत्रों ने। कटिप्रदेश को अनावृत करके रस्सा कूदते देखा है ?

शीर्षक :मुखबरी से अफसरी तक का सफर    


By banning Padmaavat, state governments are abnegating their primary function | By Karan Thapar

Under our constitution, freedom of expression is paramount and the duty of the state is to defend this right whilst protecting the citizenry against threats to law and order. The truth is if they cannot fulfil what they are there to do they should, in fact, resign









What these governments forgot is that because something causes offence is not a reason to ban it. After all, what is freedom of speech if it doesn’t include the right to offend?
What these governments forgot is that because something causes offence is not a reason to ban it. After all, what is freedom of speech if it doesn’t include the right to offend?(AP)
I wonder if the six state governments (all BJP ones) that decided to ban Padmaavat are feeling chastened after the Supreme Court struck down their decisions ? They had either announced or proposed a total ban. The Supreme Court deemed this unconstitutional and ordered them to show the film. The Court also warned any other state government from attempting a ban. This amounts to a stinging rebuff and a political embarrassment.
The state governments argued that showing the film would lead to a disturbed law and order situation which they would be unable to control. Rather than risk tension and violence they opted to ban the film. This argument was not acceptable because it turns on its head the actual duty and raison d’etre of the state.
Under our constitution, freedom of expression is paramount and the duty of the state is to defend this right whilst protecting the citizenry against threats to law and order. In pleading their inability to defend freedom of expression and protect the citizenry, the state governments were abnegating their primary function. The truth is that if they cannot fulfil what they are there to do they should, in fact, resign. In ordering the film be shown and protection provided, the Court may not have threatened dismissal but it certainly reminded the governments they were in breach of their constitutional duty.
What these state governments forgot is that because something causes offence is not a reason to ban it. After all, what is freedom of speech if it doesn’t include the right to offend? Indeed, it’s the duty of governments to protect free speech against the villainy or violence of those who make a habit of taking offence. Governments are elected to uphold democratic values, not buckle under and give in.

Sadly, it still doesn’t follow that Padmaavat will be screened without violence. The Karni Sena is bound to resort to this to intimidate both distributors and viewers. In fact, it’s likely that some or many distributors may themselves choose not to screen the film for fear of what might happen to their cinema halls. Many viewers could stay away as well.

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